ब्रज की संस्कृति आत्मदान की संस्कृति रही है, और उस संस्कृति के अग्रदूत रहे
हैं कृष्ण। राधा-कृष्ण और गोप-गोपियों के प्रेम से सिक्त हुई ब्रज भूमि कुछ
कवियों को तो ऐसी रास आई की वो ब्रज के, ब्रज की संस्कृति के और ब्रज संस्कृति
के प्राण-पुरुष कृष्ण के ही हो कर रह गए। मानुष रूप में, पशु रूप में, खग के
रूप में या फिर निर्जीव पाहन के रूप में भी रहने या होने की उनकी कामना ब्रज
में ही रहने या होने की ही रही। रसखान के ऊपर तो ब्रज का और ब्रज के
बाँके-बिहारी का रंग ऐसा चढ़ा की उन्होंने विट्ठल दास से दीक्षा ली और ब्रजभूमि
में ही जा बसे।
मानुस हौं तो वही रसखान, बसौं मिलि गोकुल गाँव के ग्वारन।
जो पसु हौं तो कहा बस मेरो, चरौं नित नंद की धेनु मँझारन॥
पाहन हौं तो वही गिरि को, जो धर्यो कर छत्र पुरंदर कारन।
जो खग हौं तो बसेरो करौं मिलि कालिंदीकूल कदंब की डारन॥
ब्रज की सांस्कृतिक चेतना के मूर्त रूप हैं कृष्ण। कृष्ण का पूरा जीवन लोक का
और लोक के उद्धार का जीवन रहा। लोक के उद्धार के लिए ही उन्होंने जन्म लेते ही
अपने माँ-बाप को छोड़ा और गोकुल में आ बसे। गोकुल में भी हरवाहों चरवाहों के
साथ गाय चराते बचपन बिताया। राधा और गोपियों से प्रीति की गाँठ जोड़ी और फिर
गोकुल से मथुरा और मथुरा से द्वारिका चले गए। कृष्ण का प्रेम किसी व्यक्ति
विशेष में एकनिष्ठ न होकर सृष्टि के कण कण तक पसरा हुआ था। यही वजह थी कि उनकी
मुरली की टेर पशु-पक्षियों तक को भी अपनी ओर खींच लेती थी।
कृष्ण ने पद और प्रतिष्ठा के मिथ्या अहंकार को हमेशा अछूत समझा। उनके लिए जीवन
की सार्थकता अहंकार को विगलित करके प्रेम और समरसता को प्रसारित करने में थी।
वह तीनों लोकों के पूजनीय हो कर भी कभी देवत्व के अहम भाव से नहीं भरे।
उन्होने ममता के हर रूपों का आस्वादन खुद भी किया और साथ ही साथ औरों को भी
कराया। यशोदा और नंद के जाए हुए न हो कर भी उनको पुत्रवत स्नेह से अभिसिंचित
किया, कुबड़ी दासी के भीतर भासित होते सौंदर्य को परखा। कभी गोपियों की गगरी
फोड़ी, उनके वस्त्र चुराए तो कभी उन्हीं गोपियों के लिए खुद को छँछिया भर छाँछ
के लिए खूब छ्काया भी।
सेस, गनेस, महेस, दिनेस, सुरेसहु जाहि निरंतर गावैं।
जाहि अनादि अनंत अखंड अछेद अभेद सुबेद बतावैं।
नारद से सुक ब्यास रहैं पचि हारे तऊ पुनि पार न पावैं।
ताहि अहिर की छोहरियाँ छछियाँ भरि छाछ पै नाच नचावैं।
ब्रज की संस्कृति जीवन जीने की एक संपूर्ण संस्कृति है जिसका मूल तत्व है
प्रेम। ब्रज की माटी के कण-कण में समाए उसी प्रेम तत्व का कायिक रूप है माखन।
कृष्ण द्वारा माखन पाने की ललक उसी प्रेम तत्व को पाने की ललक थी जिसकी
प्राप्ति मनुष्य को मनुष्य से जोड़े रखती है, मनुष्य को मनुष्य के लिए अनिवार्य
बनाती है। कृष्ण के प्रेम की व्याप्ति सिर्फ मनुष्य भर तक ही न होकर तृण, लता,
नदी-पहाड़ जीव-जंतु सब तक थी। ब्रज संस्कृति के प्राण-पुरुष कृष्ण लोक की चेतना
में आज भी अगर बसे हुए हैं तो वजह यही है कि उनका जीवन लोक जीवन रहा है और उस
लोक जीवन को पाने में ब्रज की उर्वर भूमि का ही योगदान रहा। वे धरती से जुड़े
हुए रहे, उन्होंने जीवन का वास्विक रस धरती से जुड़ कर लिया, उन्होने खुद को
कृषि संस्कृति से जोड़कर रखा जिससे जुड़ कर उन्होंने खुद को देश की आत्मा से
जोड़े रखा। मथुरा के वैभव में भी उनका मन करील के कुंजों को ही खोजता रहा।
रसखान कबौं इन आँखिन सों, ब्रज के बन बाग तड़ाग निहारौं।
कोटिक हू कल्धौत के धाम, करील के कुँजन ऊपर वारौं॥
कृष्ण राग का मर्म जानते थे, इसिलिए राग में डूबे हुए भी विरागी थे। वैराग्य
उनके शरीर का रंगीन परिधान मात्र न हो कर उनकी अत्मा का परिधेय था। उनके लिए
जीवन की मुक्ति जीवन से पलायन नहीं बल्कि जीवन के रस में डूब कर उतारने में
थी।
स्वयं कृष्ण और कृष्ण के साथ साथ गोपियाँ भी जिस राग में डूबे हुए थे, वही राग
जीवन का असली राग है। उसी राग से रागान्वित हो कर पुरुष स्त्री या
स्त्री-पुरुष एक दूसरे की ओर एक दूसरे की प्राप्ति की आकांक्षा लिए हुए बढ़ते
हैं। ब्रज की संस्कृति उसी रागलालसा से रागान्वित दिखती है जिसकी लहक आज भी
फाग के राग में साफ साफ झलकती है। उस लहक में स्त्री पुरुष का भेद मिट जाता
है। काम की कुंठा गीत-संगीत के उल्लास में तिरोहित हो जाती है।
गोकुल में गोपिन गोविंद सँग खेली फाग।
राति भर प्राति समय ऐसी छबि छलकैं॥
देहें भरि आलस कपोल रसरोरी भरे।
नींद भरे नयन कछूक झपै झलकैं॥
लाली-भरे अधर बहाली-भरे मुखबर।
कवि पदमाकर बिलोके को न ललकैं।।
भाग-भरे लाल और सुहाग-भरे सब अँग।
पीक-भरी पलकैं अबीर-भरी अलकैं॥
स्त्री और पुरुष दोनों को एकाकार करने वाले रस की रसभूमि है ब्रज की भूमि।
ब्रज की उसी रसभूमि के नायक हैं कृष्ण, जिनकी अंतरंगता का परस पा कर राधा समेत
समस्त गोपियाँ कृष्णमय हो गई थीं। कृष्ण प्रेम के मद में छकी हुई गोपियाँ इतनी
बेसुध हो जाती हैं की उन्हें अपने देह तक की भी सुधि नहीं रहती।
प्रेम-मद-छाके पग परत कहाँ के कहौ
थाके अंग नैननि सिथिलता सुहाई है।
कहै रतनाकर यौं आवत चकात ऊधौ
मानौ सुधियात कोऊ भावना भुलाई है॥
धारत धरा पै ना उदार अति आदर सौं
सारत बँहोलिनी जो आँस-अधिकाई है।
एक कर राजै नवनीत जसुदा को दियौ
एक कर बंशी वर राधिका पठाई है॥
गोपियों के इस तरह बेसुध होने में ही जीवन की सच्ची सुधि है और वही सुधि ब्रज
के संस्कृति की असली सुगंध है। उसी सुगंध ने अंधे सूर को दृष्टि दी थी और मीरा
को प्रेम की दीवानी मीरा बना दिया था।
इस तरह ब्रज की संस्कृति एक साथ आत्मदान, आत्म तर्पण, समर्पण, स्नेह, मस्ती की
भी संस्कृति है। कृष्ण को हमने लीला-पुरुष कहा तो इसलिए कि यह सारी सृष्टि
ईश्वर की लीला ही है। ब्रज की बोली बानी हो, ब्रज के तीज-त्यौहार हों, ब्रज का
खान-पान हो, ब्रज की होली हो, सबका अनूठा रंग होता है। आज आधुनिकता की बयार
कितनी ही बह रही हो, ब्रज का वैभव अक्षुण्ण है। मथुरा, गोकुल, गोबर्धन, कृष्ण,
राधा, गोपियाँ केवल संज्ञाएँ नहीं हैं, मानवीय संस्कृति के मूलाधार हैं, हमारी
गँवई संस्कृति व सभ्यता के स्रोत हैं।